जय जवान! जय किसान! : आओ लौटा लाएं लालबहादुर शास्त्री का हिन्दुस्तान!
“सैनिक शिरोमणि” मनोज ध्यानी
देहरादून: 08 दिसम्बर 2020। आज देश के किसान आन्दोलित हैं। उनका मानना है कि हाल ही में पारित किसान बिल उनकी किसानी को बर्बाद कर देंगे। किसान संगठन न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आशंकित हैं कि अब व्यवस्था उनके प्रतिकूल बन गई है। उनको अब तक उपलब्ध एक गारंटीड सिस्टम मैकेनिज्म (guaranteed system mechanism ) जिससे उनके कृषि उत्पाद को कम से कम न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता था से वंचित किया जा रहा है।
दूसरी ओर सरकार का कहना है कि अब किसानों को सीधे बड़ा बाजार मिल जाएगा। नए बिल की बदौलत कृषि क्षेत्र में पूंजी निवेश बढेगा और किसान व किसानी के दिन बहुरेंगे। जबकि किसान मानते हैं कि सरकार का कदम कुछ खास पूंजीपतियों के हाथ में कृषि को सौंपना मात्र है। सरकार के कदम से किसान आंदोलन की राह पकड़ चुके हैं। किसान आंदोलन सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गया है । भारत संघ की अनेको राजनैतिक दल किसानों के आंदोलन के खड़े हो चुके हैं।
सरकार द्वारा किसान आंदोलन को बलपूर्वक रोकने के प्रयास से अंतर्राष्ट्रीय आलोचना का सामना भी सरकार को करना पड़ रहा है। इस सबके कारण देश में विभिन्न किसान संगठनों ने आज भारत बंद का आह्वान किया हुआ है।
उत्तराखंड की बात करें तो प्रदेश के तराई क्षेत्र के किसान देश के किसान संगठनो के साथ आंदोलनरत हैं परन्तु पर्वतीय अंचलों के किसान निरपेक्ष बने हुए हैं। आज से कुछ वर्ष पूर्व नैनीताल के शैवाय होटल में हुई बैठक में पर्वतीय कृषि व पर्वतीय शिक्षा पर बुद्धिजीवियों के मध्य गंभीर चरचा हुई थी। इस चरचा में मैंने भी सक्रिय प्रतिभाग किया था।
मैंने चरचा के दोरान सदन के समक्ष दो प्रस्ताव उत्तराखंड की शिक्षा नीति व उत्तराखंड की कृषि नीति के विषयक रखे गए थे। मेरे द्वारा प्रस्तुत दोनो प्रस्ताव ध्वनिमत से स्वीकृत किए गए थे।
कृषि नीति पर मेरा सुझाव था, कि उत्तराखंड सरकार से मांग की जाए कि वह फारमर्स बिल ऑफ उत्तराखंड (Farmers bill of Uttarakhand) लेकर आए। जिसके द्वारा उत्तराखंड के किसानों की समस्या जैसे कि बंदर-लंगूर, सुअर, सेही, हाथी, भालू आदि के कारण कृषि चौपट होने के निदान किसानों को दिए जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त दैवीय आपदा से कृषि को पहुंचने वाले नुकसान की संभावना व उससे निपटने के उपाय किसी भी कृषि नीति की सोच का हिस्सा होनी चाहिए। इन सबसे होने वाले कृषि नुकसान की भरपाई के लिए उनके लिए समुचित मुआवजा व्यवस्था निर्मित की जानी चाहिए। कृषि सिंचाई व्यवस्था के आधुनिक व दीर्घकालीन उपाय भी बिल के द्वारा अभी से निर्मित कर दिए जाने चाहिए। पर्वतीय कृषि उत्पाद को भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (minimum support price ) के द्वारा संरक्षित किया जाना चाहिए। प्रदेश की खाली पड़ी बंजर भूमि को जोत भूमि बनाने हेतु आवश्यक उपाय किए जाने चाहिए। पर्वतीय कृषि उत्पाद के विपणन के लिए आधारभूत ढांचा निर्मित किया जाना चाहिए। समूचे उत्तराखंड में कृषि उत्पाद की शेल्फ वैल्यू (Shelf Value ) बढाने के लिए कोल्ड स्टोरेज चेन (Cold Storage Chain) बनने चाहिए। प्रत्येक ब्लाक में फूड़ प्रोसेसिंग प्लांट (Food Processing Plant) लगाए जाने चाहिए आदि।
कहने का अर्थ है कि मैदान हों या पहाड़ किसान और किसानी दोनो को सरकार से समुचित संरक्षण की मांग रहती है। बिना सरकार से समुचित संरक्षण के कृषि क्षेत्र वह अबोध बालक के समान बना रहता है जो पढना और बढना तो चाहता है परंतु स्कूली शिक्षा के लिए उसके पास धेला भर भी नहीं होता है।
आधुनिक अर्थ व्यवस्था में सरकार का यह काम व दायित्व निजी निवेशक भी बखूबी निभा सकते हैं। और इसका ही बड़ा पुट केन्द्र सरकार द्वारा पारित किसान बिल में भी है। परंतु किसान व किसानी इसी निदान के तरीके से संशय में आई हुई है। सरकार की सभी दलीलें किसान व किसानी की आशंकाओं को दूर नही कर पा रही है।
अब ऐसे में उपाय क्या है:
उत्तर बेहद आसान है – किसान व किसानी को लोकतंत्र प्रद समाधान दीजिए। भारत राज्यों का संघ है। अत: संघीय ढांचे को ही मजबूत करें। केन्द्र सरकार लचक बने व सीधे सीधे संघ के राज्यों को ही अधिकृत करे कि वह चाहें तो कृषि के नये मॉडल को बिल के अनुसार अपनाए अथवा उनके लिए जो भी सर्वोपयुक्त माॅडल है उसे लागू करें। कुल मिलाकर लक्ष्य होना चाहिए कि कृषि क्षेत्र का विकास हो, देश में कृषि उत्पाद बढे व किसान और किसानी के दिन बहुरें।
और उत्तराखंड आप कब जागेंगे?